Wednesday, December 25, 2013

कुछ ऐसा जाम पिला साकी- ११



चलो अब मैं भी बस करता हूँ,
इस कहानी का यही अंत करता हूँ,
कुछ एक सौदे जो रह गए है बाकी,
उनके बिना ही ये जीवन ख़त्म करता हूँ,

कुछ ऐसा जाम पिला साकी,
की कोई और तमन्ना बाकी ना रहे,

रह जायेंगे मेरे पीछे कुछ अधूरे से वादे मेरे,
आँसू के कोनो पे यादों की सिलवटे फेरे,
माँ के सारे किस्से सुनहरे,
और पिता के कुछ सपने अधूरे,

कुछ ऐसा जाम पिला साकी,
की कोई और तमन्ना बाकी न रहे,

पर बस और ना ये याद आने पाए,
आँसू के धारों में सिलवटे ना आये,
निकल चलू उस अनन्त सफ़र पे,
दुःख और ख़ुशी जहाँ साथ ना आये,

ना बचे मेरा कोई निशान बाकी,
ना किसी की यादों  में मेरी सरगोशी रहे,
कुछ ऐसा जाम पिला साकी,
की कोई और तमन्ना बाकी ना रहे,

कई रातों से नींद नहीं आई इन आखों में,
ये भी आराम का सबब पाए,
कुछ ऐसा जाम पिला साकी,
की कोई और तमन्ना बाकी ना रहे.

~~साकेत श्रीवास्तवा~~



 

Monday, November 11, 2013

आज भी तेरे इश्क में

है आहों का बाज़ार गर्म,
आज भी तेरे इश्क में,
सुलगती, इस लाश की हर सांस है,
आज भी तेरे इश्क में,


दूर जाना पास आना,
कभी कदमों का डगमगाना,
वक़्त से है होड़ लगी,
आज भी तेरे इश्क में,


जिंदगी से रोज हारे,
मौत का है सेहरा बांधें,
कुछ भी कर जाने की चाहत,
है, आज भी तेरे इश्क में,


भूल जाऊं तुझे मैं,
वक़्त की इस चाल में,
तेरे जैसा पत्थर नहीं मैं,
आज भी तेरे इश्क में,


तू ये माने या ना माने,
संग जाने या न जाने,
चिता हूँ अपनी खुद जलाये,
आज भी तेरे इश्क में,


शायद कभी तू भूल के,
ढूँढने मुझको फिर से आये,
सर्द आहों में तू मेरा,
जिक्र थोडा फिर से पाए,


रो उठेगा तेरा भी दिल,
जब तू देखेगी अपनी आँखों से,
 कैसे मिलती रोज मौत मुझको,
आज भी तेरे इश्क में,


है आहों का बाज़ार गर्म,
आज भी तेरे इश्क में.

||साकेत श्रीवास्तव||

Saturday, September 28, 2013

कुछ ऐसा जाम पिला साकी- १०

मत पूछ तेरी याद में, मैंने,
कितने आँसू बहाए है,
आँखों के लाल डोरे बता देंगे,
की ये रुकने का नाम कहाँ पाए है,

बस और न दिल में दर्द उठे,
न कोई जख्म अब जहर बने,

कुछ ऐसा जाम पिला साकी,
की कोई और तमन्ना बाकी न रहे,
सेहर होने तक रोऊ मैं आज,
की इन आँखों में आँसू कोई बाकी न रहे,

कुछ ऐसा तनहा सा हो जाऊ मैं आज,
की खुद को खुद की भनक न लगे,
लम्बा अरसा गुजर गया,
खुद की कब्र पे लिपटे हुए,

बस और ये रोने के बहाने न हो,
दिल में दर्द के थपेड़े न हो,

कुछ ऐसा जाम पिला साकी,
की कोई और तमन्ना बाकी न रहे,
बस तनहा मैं सो जाऊ,
और दिल में दर्द की सदा न रहे,


कुछ ऐसा जाम पिला साकी,
की कोई और तमन्ना बाकी न रहे,

||साकेत श्रीवास्तव||

Thursday, September 26, 2013

पीछे क्यों हटना

ग़र चाह यही है,
जो राह चुनी है,
तो डर से पीछे क्यों हटना,

ग़र हुंकार भरी है,
और ललकार करी है,
तो जंग से पीछे क्यों हटना,

आसमान तक शोर उठा दो,
मौत का सीना चीर दिखा दो,

ग़र मातृभूमि को छु ले कोई,
उसके घर में मौत जग दो,

मस्तक पे अक्षत टीका हो,
मन में पावन गीता हो,
मातृभूमि की रक्षा में,
सर-काल बने तुम मडराओ,



ग़र चाह यही है,
जो राह चुनी है,
तो डर से पीछे क्यों हटना.

~~साकेत श्रीवास्तव~~

Monday, September 16, 2013

यादें तेरे पास रहेंगी



बचपन के दिन भी बड़े हसीं थे,
जब सर्दियों के दिन में,
धुप की चादर ओढ़े पूरी,
दोपहर यूँ ही,
अनमने से गुजार देते थे.

दौड़े चले जाते थे गेंद की चाह में,
कभी इधर कभी उधर,
पंछी की मानिंद उड़ते फिरते थे,
नीले गगन में,
कभी इस गली कभी उस गली,

लगे रहते थे दोस्तों के जमघट,
नीली छतरी के नीचे,
हमारी छतों के ऊपर,
और गूंजती रहती थी,
हंसी की आवाजें,
हमेशा कानो में हमारे,

वो दिन शायद अब न आये,
शायद फिर वो जाड़े की दोपहर,
अब ना पाए,
शायद छतों पे दोस्तों के जमघट,
फिर कभी मयस्सर ना हो,

पर ये सुहानी यादें,
हमेशा साथ रहेंगी,

दिल को हमेशा,
रिझांति रहेंगी,
बताती रहेंगी,

की कितने भी तुम बढ़ जाओ,
कितने भी तुम आगे जाओ,

वक़्त जो गुजरा वही रहेगा,
बचपन तेरा वही रहेगा,
माँ का आँचल वही रहेगा,

अंत तक साथ तेरे वही रहेगी,
तेरी यादें तेरे पास रहेंगी..

||साकेत श्रीवास्तव||
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Friday, August 16, 2013

ढूँढते ढूँढते अरसा गुजर गया

तुझे ढूँढते ढूँढते अरसा गुजर गया,


गर्द चढ़ी किताबों की तरह,
जब यादों पर से,
धुंधलेपन को हटाया,
तो जाना,

की तुझे ढूँढने में,
मेरे जिंदगी का हर,
लम्हा गुजर गया,

कई बार तेरा पीछा किया है,
उनींदी आखों के सपनों में,
जहाँ के इस छोर से,
अनंत के उस मोड़ तक,

पर इस दौड़ में,
यूँ तो सब मिल गया,
बस एक तुझे,
देखे ज़माना गुजर गया,

हाँ एक तस्वीर है तेरी मेरे पास,
कागज़ में उकेरी,
कुछ धुंधली सी तकदीर,
है मेरे पास,

कभी जब बहुत बोझिल,
हो जाता है ये अकेला सा मन मेरा,
और ये खामोश सी शाम,
उदासी का शबब ओढ़ लेती है,

जब दूर घरों से,
लोगो के खिलखिलाने की आवाज पड़,
जाती है कानो में, तो लगता है
तेरे साथ मेरा तकदीर गुजर गया,

हाँ तू शायद नहीं आएगी,
फिर कभी मेरी तकदीर बनाने,
और शायद नहीं गुजरू मैं भी,
बसंत की बागवानी से,

पर एक ख़ुशी हर बार मेरा दामन,
थामेगी,
की कुछ पल और वक़्त ही सही,
तेरे साथ मेरा एक लम्हा गुजर गया,

मौत की कहानी लिखने में,
जिंदगी बशर हो गयी,
तू मिला भी नहीं इन यादों के बीच,
और ये शाम यूँ ही बेवजह,
सेहर हो गयी,

जब कभी जिंदगी के इस मोड़,
से, पलट के देखता हूँ,
तो नजर आता है, बस एक तेरा चेहरा,
थोडा धुंधला थोडा मुस्कराता,

मेरी जिंदगी को,
जीवन बनता,
नजर आ जाता है,
इन गर्द पड़ी यादों के पार,

और देख बदनसीबी,
इस कमबख्त तकदीर की,
तुझे ही,
ढूँढते ढूँढते अरसा गुजर गया.

||साकेत श्रीवास्तव||






Wednesday, August 14, 2013

विश्व गुरु



चल एक नया सूरज उगाते है,
उस आसमान को फिर से सजाते है,
थामे बहे एक दूजे का चल, देश
को अपने फिर से विश्व गुरु बनाते है,

जो भूल चूका संसार हमें,
जो भूल चुके हम खुद में है,
चलो एक दुसरे के साथ,
हम फिर वही हुंकार बनाते है,

थोड़ी दिक्कत थोड़ी मुश्किल,
शायद थोड़ी खून की होली,
फिर एक क्रान्ति की चाहत है,

अब मौका मिला है चुन लो,
भगत सिंह और आजाद भी बन लो,
पूरा जीवन अपना देके,
क्रांतिवीर की राह पकड़ के,

जो कई जन्मो तक न चुक पाए,
उस भारत माँ का कर्ज चुकाते है,

चल एक नया सूरज बनाते है,
उस आसमान को फिर से सजाते है,

रंग भगवा बने वीरता,
रंग हरा बन जाये खुशहाली,
रंग सफेदी का लिए हुए,
बन जाये हम शांतिदूत अभिमानी,

चक्र शक्ति का लिए हुए,
विकास मार्ग पर डंटे हुए,
बन जाये संस्कृति के रखवाले,

चल एक नया सूरज बनाते है,
उस आसमान को फिर से सजाते है.


||साकेत श्रीवास्तव||

Friday, July 26, 2013

और लाश जल उठी



और लाश जल उठी,
कल तक जो एक जिन्दा तस्वीर थी,
जिसके माथे भी एक तकदीर थी,
आज वो देह धू धू कर जल उठी,

कभी दादी कभी नानी,
कभी बच्चो की कोई कहानी,
कभी माँ का आँचल लिए हुए,
आज वो बोली मौत की जुबानी,

कभी जो पूरे खेतों तक,
यूँ ही घूम के आती थी,
अन्दर से जो थी कोमल,
पर बुढ़ापे की अलग कहानी थी,

जब तक देह में जान बसी थी,
रिश्ते नातों की न कोई कमी थी,
जिस दिन सैय्याँ पे लेटी वो,
बनी एक लाश की कहानी भर थी,

माँ का आँचल किसी के सर से,
दादी की बातें किसी के मन से,
और कहानी बच्चो की,
रह गयी लाश की रवानी भर थी,

कल तक हाथ पकड़ के जिसका,
गाँव गाँव हम घूमे थे,
आज पड़ी वो सर-सैय्याँ पे,
एक लाश की कहानी कहती है,

बस कुछ लकड़ियों और,
थोड़ी आग की कहानी भर है,
पूरी जिंदगी बस एक बेमानी भर है,

ना रोई ना वो कापी,
ना वो आग की तपिश से जागी,

जो कल तक जिन्दा थी,
वो लाश आज जल उठी...

||साकेत श्रीवास्तव||