Thursday, May 16, 2013

पागल मन


ना जाने क्या ढूँढता सा,
रहता है पागल मन मेरा,
कुछ अनकही सी कमियों,
के बीच चलती है जिंदगी,

कुछ छूटा सा लगता है,
अन्दर कुछ टूटा सा लगता है,
जब कभी अतीत के पन्नो
को पढ़ने बैठ जाता हूँ,

आखिर क्या था मेरा,
जो छूट गया, वक़्त के दौड़ में,
वादा तो किसी का ना था,
की संग मेरे चलता जायेगा,

फिर क्यों ढूँढता हूँ उसे,
पूरी रैना इन ख्वाबों के पार,

आखिर प्यार भी मेरा तो,
        एक कहानी भर थी,
       
        कुछ दुखी सा रहता है,
        मन, कुछ रोता सा है मन,
        सुरमई सी शाम में,
        जब अतीत सत्य बन कर आ जाता है,

        शायद कुछ एक शब्दों की,
        कोई कहानी खुद से लगा बैठा होगा,
        ये अपनी धुन में,
        सुध गवां बैठा होगा,

        ये बस अंतिम पन्नो की,
        कहानी समझ ले,
        या वक़्त की कोई रवानी,
        समझ ले,

        कहीं दूर निकल जाऊंगा,
        मैं इन्हें साथ लेके,
        ये यादों की किताब लेके,
        अगर आराम फिर भी न आया,

        तो खोज लूँगा एक तनहा सी,
        कब्र,
        जिसमें सजा के रख सकूं,
        इन यादों को अपने पलकों पे,
        और खो जाऊंगा खुद की आगोश में ही,

ना जाने क्या ढूँढता सा,
        रहता है पागल मन मेरा.

        ||साकेत श्रीवास्तव||

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