Sunday, May 5, 2013

तुझे खो के मैं जी कहाँ पाउँगा

डर तुझे खोने का होता,
तो पार होना थोडा आसान होता,
पर दुःख तो इस बात का है,
की तुझे खो के मैं जी कहाँ पाउँगा,

यूँ तेरा हाथ थाम के चलना,
तो पहले भी केवल एक सपना,
था मेरा,
पर अब आलम-ऐ-दरख्वास्त,
भी न कर पाउँगा,

तुझसे नफरत करना तो मुमकिन नहीं,
हाँ तेरी याद में आंसू जरूर बहाऊंगा,

कितना रोया और कितना खोया,
ये बयां करना आसान नहीं,
हाँ इन आसुओं का हिसाब,
तो मरते दम तक न कर पाउँगा,

ना जाने क्या खोजता हूँ,
मैं जिंदगी में,
जब तू ही छोड़ के चल दी,
तो किसी और को जिंदगी,
कहाँ कह पाउँगा,

बहुत दूर तलक निकल,
आया हूँ मैं तेरे इश्क में,
आगे जाना तो मुमकिन नहीं शायद,
पर पीछे लौट के भी क्या पाउँगा,

शायद कुछ एक बियेबान मिल जाये,
मुझे अपने ही उजड़े चमन के,
वरना मौसम तो बस,
पतझड़ का ही पाउँगा,

ये मिन्नत नहीं है मेरी,
की तू लौट आये वापस मेरे पास,
बस दुआ है उस खुदा से,
की मुझे भी एक जिंदगी अदा कर दे,

वरना मुक्कम्मल वक़्त की कहानी है सब,
आखिर उस से पहले,
मैं मौत भी कहाँ पाउँगा,

आखिर तुझे खो के मैं जी कहाँ पाउँगा...

||साकेत श्रीवास्तव||


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