Friday, May 24, 2013

इतना सुकून क्यों है

तेरी यादों में,
इतना सुकून क्यों है,
तेरे नाम पे,
मचलता लहू क्यों है,

तुझसे दूर जाने,
की चाहत थी दिल की,
फिर हर जर्रे रह गुजर के,
बसा तू क्यों है,

क्यों बर्बाद करना चाहता,
है ये दिल मुझे,
आखिर विरहा के हर मोड़ पे,
एक नया इम्तिहान क्यों है,

कभी तो मैंने तेरा हाथ,
नहीं थामा,
न कभी चला तेरे साथ,
जिंदगी की रह गुजर में,

फिर मेरी आत्मा,
खुद के शरीर से,
जुदा क्यों है,

महसूस तो पहले भी न था,
तुझे मेरे इश्क का,
फिर मुझे तेरे होने,
का एहसास क्यों है,

माथे की सिलवटों में,
दिल के हरकतों में,
मेरी हर बात में,
आखिर तेरा निशान क्यों है,

कुछ तो बता मुझे,
मेरी साँसे मुझसे जुदा क्यों है,

आखिर, तेरी यादों में,
इतना सुकून क्यों है.

||साकेत श्रीवास्तव||


Thursday, May 16, 2013

पागल मन


ना जाने क्या ढूँढता सा,
रहता है पागल मन मेरा,
कुछ अनकही सी कमियों,
के बीच चलती है जिंदगी,

कुछ छूटा सा लगता है,
अन्दर कुछ टूटा सा लगता है,
जब कभी अतीत के पन्नो
को पढ़ने बैठ जाता हूँ,

आखिर क्या था मेरा,
जो छूट गया, वक़्त के दौड़ में,
वादा तो किसी का ना था,
की संग मेरे चलता जायेगा,

फिर क्यों ढूँढता हूँ उसे,
पूरी रैना इन ख्वाबों के पार,

आखिर प्यार भी मेरा तो,
        एक कहानी भर थी,
       
        कुछ दुखी सा रहता है,
        मन, कुछ रोता सा है मन,
        सुरमई सी शाम में,
        जब अतीत सत्य बन कर आ जाता है,

        शायद कुछ एक शब्दों की,
        कोई कहानी खुद से लगा बैठा होगा,
        ये अपनी धुन में,
        सुध गवां बैठा होगा,

        ये बस अंतिम पन्नो की,
        कहानी समझ ले,
        या वक़्त की कोई रवानी,
        समझ ले,

        कहीं दूर निकल जाऊंगा,
        मैं इन्हें साथ लेके,
        ये यादों की किताब लेके,
        अगर आराम फिर भी न आया,

        तो खोज लूँगा एक तनहा सी,
        कब्र,
        जिसमें सजा के रख सकूं,
        इन यादों को अपने पलकों पे,
        और खो जाऊंगा खुद की आगोश में ही,

ना जाने क्या ढूँढता सा,
        रहता है पागल मन मेरा.

        ||साकेत श्रीवास्तव||

Wednesday, May 15, 2013

दीवाना


कभी कभी तेरी खुशबु सी आ जाती है,
जब होता कोई पास नहीं,
और छु सी जाती है पूरे अंतर्मन को,
और बना जाती है फिर दीवाना सा मुझे,

बस यूँ ही बैठे बैठे कभी याद आ जाती है,
कुछ तन्हाई को मिटाती सी,
और कर जाती है सारा माहौल,
खुशनुमा सा,

कभी सोचता है ये बावला सा मन,
तेरे पास आने का,
तुझे लेके साथ में,
उस आस्मां तक जाने का,

कभी लगता है की बस,
खोये रहे तेरी तस्वीर में,
जब छा जाती है तेरी यादें कभी,
तो बना जाती है फिर दीवाना सा मुझे,

कई बार खामोश सा होके,
गुजारी है मैंने ये तनहा रातें,
और चलता ही जा रहा हूँ,
तनहा सा इन जिंदगी की राहों में,

काश तू एक बार पुकारे नाम मेरा,
और फिर तेरे होठों पे वो मुस्कान आ जाये,
जो कभी सिर्फ मेरे आँखों में बसी थी,
और मैं चला आऊँ इन अंधेरों से बहार,

कभी तो मेरे बारे में भी सोच,
बना गयी जिसे तू दीवाना सा...

||साकेत श्रीवास्तव||

Sunday, May 5, 2013

तुझे खो के मैं जी कहाँ पाउँगा

डर तुझे खोने का होता,
तो पार होना थोडा आसान होता,
पर दुःख तो इस बात का है,
की तुझे खो के मैं जी कहाँ पाउँगा,

यूँ तेरा हाथ थाम के चलना,
तो पहले भी केवल एक सपना,
था मेरा,
पर अब आलम-ऐ-दरख्वास्त,
भी न कर पाउँगा,

तुझसे नफरत करना तो मुमकिन नहीं,
हाँ तेरी याद में आंसू जरूर बहाऊंगा,

कितना रोया और कितना खोया,
ये बयां करना आसान नहीं,
हाँ इन आसुओं का हिसाब,
तो मरते दम तक न कर पाउँगा,

ना जाने क्या खोजता हूँ,
मैं जिंदगी में,
जब तू ही छोड़ के चल दी,
तो किसी और को जिंदगी,
कहाँ कह पाउँगा,

बहुत दूर तलक निकल,
आया हूँ मैं तेरे इश्क में,
आगे जाना तो मुमकिन नहीं शायद,
पर पीछे लौट के भी क्या पाउँगा,

शायद कुछ एक बियेबान मिल जाये,
मुझे अपने ही उजड़े चमन के,
वरना मौसम तो बस,
पतझड़ का ही पाउँगा,

ये मिन्नत नहीं है मेरी,
की तू लौट आये वापस मेरे पास,
बस दुआ है उस खुदा से,
की मुझे भी एक जिंदगी अदा कर दे,

वरना मुक्कम्मल वक़्त की कहानी है सब,
आखिर उस से पहले,
मैं मौत भी कहाँ पाउँगा,

आखिर तुझे खो के मैं जी कहाँ पाउँगा...

||साकेत श्रीवास्तव||