Monday, September 8, 2014

कहीं जख्म हरे ना हो जाये-१

#KahiJakhmHareNaHoJaye

कहीं जख्म हरे ना हो जाये,


दिल में उठते जज्बातों,
को रोक लेते हैं,
कभी आइना पड़ जाए सामने,
तो मुंह मोड़ लेते हैं,

पुरवा के मंद झोंकों में,
अब आँखें भींच लेते हैं,
और आ जाये जो तू कभी इन सपनो में,
तो वो सपने तोड़ देते हैं,

अब तो सांसें भी कुछ आराम से लेते हैं,
डरते हैं की,
कही जख्म हरे न हो जाये,


दूर बँसवारी के पार जब,
धुप ढल रही होती है,
और ढलती शाम के साथ,
तेरी यादें बढ़ रही होती है,
तब,
सूखे आँखों से ही रो लेते हैं,
डरते हैं की,
कही जख्म हरे न हो जायें,


बहुत लम्बा सफ़र तय कर आया हूँ,
ना जाने कितनी हार जीत संग लाया हूँ,
एक लम्बा अरसा जिंदगी का,
तेरी फिराक में गुजार आया हूँ,

अब तो कुछ कम ही जिंदगी,
जिया करते हैं,
डरते हैं की,
कही जख्म हरे न हो जाये,


चुभे इतने कांटें हैं,
इस चमन को सजाने में,
की अब फूलों से भी,
डर के रहते है,

अब तो अधकच्ची नींद,
ही सो लेते हैं,
डरते हैं की,
कही जख्म हरे न हो जाये...

||साकेत श्रीवास्तव||
(C) RIGHT RESERVED...




Wednesday, July 23, 2014

मैं एक लड़की हूँ



I am writing this poem as a tribute to all women...and a message to society that we exist because there is a women who is our Mother or sister or wife or daughter....respect them love them but don't hurt them....

मैं एक लड़की हूँ,

हां वही लड़की
जिसे तुम बहना बुलाते हो,
तो कभी बेटी बुलाते हो
कभी माँ बुलाते हो,
तो कभी बीवी बुलाते हो,

और जब झुर्रिय पड़ जाती है मेरे,
इस चेहरे पे,
तो जिसको तुम किस्सों वाली दादी बुलाते हो,

मैं एक लड़की हूँ,

हां वही लड़की,
जिसके हाथो राखी बंधवा कर,
उसकी रक्षा का जिम्मा उठाते हो,
जिसके माथे सिन्दूर सजा के,
अपनी दुल्हन बनाते हो,

मैं एक लड़की हूँ,

हां वही लड़की जिसके हाथों की खीर को,
तरस उठते हो जब तुम उसे माँ बुलाते हो,
जिसे हर बार हर साल नव दुर्गा,
पे तिलक लगते हो

और मैं वही लड़की हूँ,
जिसे तुम कोख में मार देते हो,
या रस्ते पे काट देते हो,
और बन जाते हो नरभक्षी जानवर,

क्या बदल जाता है मुझमें,
जब तुम देख लेते हो किसी,
बियेबान में मुझको अकेला,
क्यों भूल जाते हो मेरे हाथों की खीर,
और राखी की वो सीख,

क्या इसी वक़्त के लिए,
मैं तुम्हे राखी बांधती हूँ,
और तुम्हारे नाम का सिन्दूर,
लगा के तुम्हारे साथ आती हूँ,

क्या बस इतना अपराध रह,
जाता है मेरा,
की मैं एक लड़की हूँ,

बस,
और तुम्हे हक मिल जाता है,
की तुम मुझे नोचो मारो,
मेरी आबरू नीलाम कर दो,

मैं तो सीता हूँ,
मैं सती हूँ
काली हूँ और दुर्गा हूँ,
जब पाप हद पार कर लेंगे तुम्हारे,
तो धरती माँ की गोद में,
छुप जाउंगी तुम्हारे इस कठोर,
संसार से बच जाउंगी,

पर एक बार मैं छुप गयी,
तो तुम कहाँ से लाओगे मेरे हाथों की खीर,
मेरी मीठी आवाज में तुम्हारा नाम,
और कहाँ से लाओगे अपने जैसा,
एक नया शैतान...

हां मैं वही लड़की हूँ....

~~साकेत श्रीवास्तव~~
(C) RIGHT RESERVED...

Sunday, February 16, 2014

इस दिल से मुझे कोई आस नहीं है

कोई चाह नहीं,
कोई बात नहीं,
मेरे बस में ये सांस नहीं,

दिल टूट रहा है,
संग छूट रहा है,
इस दिल से मुझे कोई आस नहीं है,

है आग लगी,
और बात बनी,
मेरे संग है मेरी मौत चली,

है रात हुई.
और कोई साथ नहीं,
पागल सी मंथर हवा चली,

तू साथ नहीं,
खुद की याद नहीं,
खुद से खुद की है जंग छिड़ी,

तू साथ नहीं...खुद की याद नहीं...

||साकेत श्रीवास्तव||