और लाश जल उठी,
कल तक जो एक जिन्दा तस्वीर थी,
जिसके माथे भी एक तकदीर थी,
आज वो देह धू धू कर जल उठी,
कभी दादी कभी नानी,
कभी बच्चो की कोई कहानी,
कभी माँ का आँचल लिए हुए,
आज वो बोली मौत की जुबानी,
कभी जो पूरे खेतों तक,
यूँ ही घूम के आती थी,
अन्दर से जो थी कोमल,
पर बुढ़ापे की अलग कहानी थी,
जब तक देह में जान बसी थी,
रिश्ते नातों की न कोई कमी थी,
जिस दिन सैय्याँ पे लेटी वो,
बनी एक लाश की कहानी भर थी,
माँ का आँचल किसी के सर से,
दादी की बातें किसी के मन से,
और कहानी बच्चो की,
रह गयी लाश की रवानी भर थी,
कल तक हाथ पकड़ के जिसका,
गाँव गाँव हम घूमे थे,
आज पड़ी वो सर-सैय्याँ पे,
एक लाश की कहानी कहती है,
बस कुछ लकड़ियों और,
थोड़ी आग की कहानी भर है,
पूरी जिंदगी बस एक बेमानी भर है,
ना रोई ना वो कापी,
ना वो आग की तपिश से जागी,
जो कल तक जिन्दा थी,
वो लाश आज जल उठी...
||साकेत श्रीवास्तव||