Tuesday, April 30, 2013

जर्रो से रहगुजर के बाहर तो निकल

कभी जर्रो से रहगुजर के बाहर तो निकल,
कभी खुले आसमान में,
चमकते तारो को तो देख,

क्यों घुटा रहता है तू,
इन ऊँचे मकानों,
के दुकानों में,

कभी खुले दिल के,
आँगन में,
अपनो को जगह तो दे,

क्यों दूरियां बनाये,
रखे हो,
अपने रगों के खून से,
कभी सीधा इन्हें दिल में उतरने तो दे,

बात इसकी नहीं की,
मरना अकेले ही है,
पर हाँ पूरे सफ़र में,
कुछ हमसफ़र हो तो,
कुछ बातों का सिला तो दे,

चल आज मेरे हाथों को थामे,
उन दूरियों तक,
जहाँ ये जमी आसमा,
एक से हो जाते है,

कुछ इस कदर चलते है,
की इन दूरियों को नापते नापते,
हमारी दूरियां मिट जाए,

चल फिर लौट चलते है,
इन ऊँचे मकानों को छोड़,
वापस अपने घरों को,
जहाँ खाली सड़के नहीं,
बल्कि जगमगाती गलियां मिले,

कभी जर्रो से रहगुजर के,
बाहर तो निकल,

चल ढूंढ ला,
वो सची खुशियाँ दुबारा,
चल मेरे साथ तो चल,

जर्रो से रहगुजर के बाहर तो निकल.

||साकेत श्रीवास्तव||